वृश्चिक लग्न का फलादेश

इस लग्न वाले व्यक्ति बड़े उग्र स्वभाव के अपनी मनमानी करने वाले, क्रोधयुक्त, कर्मठ, हठी, चोरी से व्यापार करने वाले पुलिस तथा मिलिटरी वालों के मित्र होते हैं।

सूर्य

1. सूर्य दशमाधिपति होने से अशुभ नहीं रहा अतः शुभ ही समझा जायेगा ।

2. दशमेश सूर्य यदि बलवान् हो तो पिता धनी होता है। व्यक्ति बड़े कामों में हाथ डालता है, विख्यात होता है, कार्यों में सिद्धि प्राप्त करता है।

वृश्चिक लग्न में सूर्य महादशा का फल

यदि सूर्य बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में राजसत्ता किसी न किसी रूप में देता है। मान में विशेष वृद्धि होती है। शुभ यज्ञीय कार्य इस अवधि में मनुष्य अपने हाथ से करता है । पिता के धन की वृद्धि होती है। इस अवधि में कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। धन में भी वृद्धि होती है। किसी बड़े काम धन्धे का श्रीगणेश होता है । यदि शुक्र का सूर्य से योग हो तो पति को वाहनादि की प्राप्ति होती है।

यदि सूर्य निर्बल तथा पापी ग्रहों से पीड़ित है तो राज्य से तथा अधिकार से हटा देता है। अच्छे यज्ञीय कार्यों से दूर रखता है, पिता को इस अवधि में आर्थिक हानि होती है और जातक का अपना अपमान होता है। छोटे भाई को कष्ट होता है। अपने कार्यों में जातक को असफलता रहती है ।

चन्द्र

1. चन्द्र नवमाधिपति होने के कारण तथा एक राजकीय ग्रह होने के कारण बलवान् हो तो विशेष राज्य कृपा का पात्र बनता है।

2. लग्न में नीच का चन्द्र हो, परन्तु क्षीण न हो तथा पापयुक्त पापदृष्ट न हो तो मनुष्य को धार्मिक बनाता है, क्योंकि नवमेश (और वह भी मन-चन्द्र) का लग्न से सम्पर्क स्थापित करना धर्म का निज (Self) से सम्बन्ध स्थापित करना है।

3. यदि गुरु, चन्द्र और केतु कर्क राशि में नवम भाव में स्थित हों, तो गुरु की दशा में प्रचुर धनादि की प्राप्ति होती है, परन्तु केतु की दशा साधारण रहती है ।

क्योंकि गुरु लग्न, चन्द्रलग्न और चन्द्रलग्न के स्वामी सभी पर अपना शुभ और धनदायक प्रभाव डालेगा जिसका फल धन की प्रचुरता होगी।

केतु भी एक छाया ग्रह के नाते यद्यपि गुरु और चन्द्र का सम्मिलित शुभ फल करेगा परन्तु स्वतन्त्र रूप से एक पापी ग्रह होने के कारण इसका इतने धनदायक ग्रहों को पीड़ित करना बहुत धन की प्राप्ति में बाधा भी उत्पन्न करेगा, विशेषतया केतु दशा केतु के ही अन्तर में ।

वृश्चिक लग्न में चन्द्र महादशा का फल

यदि चन्द्रमा बलवान हो तो वह अपनी दशा भुक्ति में मनुष्य को धर्मप्रिय बनाता है। उसके विचार इस अवधि में बहुत ऊंचे रहते हैं । उसके भाग्य तथा धन में विशेष वृद्धि होती है। उसके पिता का धन, मान भी बढ़ता है। उसकी स्त्री के छोटे भाइयों के भाग्य में तथा मान में वृद्धि होती है। जातक की छोटी बहन के पति की भी वृद्धि होती है । मनुष्य को पौत्री की प्राप्ति होती है। सट्टे आदि व्यापार से लाभ रहता है। राज्य की ओर से कृपा दृष्टि बनी रहती है। पुत्र भी उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है ।

यदि चन्द्र क्षीण हो और पाप प्रभाव में हो तो अपनी दशा भक्ति में धन का नाश करता है। जातक को व्यापार अथवा नौकरी में भारी हानि उठानी पड़ती है। उसका मन धार्मिक कार्यों से उचाट रहता है। उसके पिता को आर्थिक हानि और शारीरिक कष्ट रहता है। सट्टे आदि व्यापार में घाटा उठाना पड़ता है । पुत्र को भी आर्थिक हानि का समय होता है ।

मंगल

1. मंगल यद्यपि षष्ठाधिपति है तथापि लग्नाधिपति होने से थोड़ा शुभ ही मानना चाहिए।

2. ऐसे व्यक्ति का यदि मंगल बलवान् हो तो शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं।

3. इस लग्न वालों का मंगल तथा शनि मिलकर जिस भाव तथा उसके स्वामी अथवा कारक को देखें उससे उनका कड़ा विरोध होता है।

4. यदि शनि षष्ठ स्थान में हो तो मंगल में विशेष चोरी की आदत आ जाती है।

वृश्चिक लग्न में मंगल महादशा का फल

जब मंगल बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन, मान के अतिरिक्त प्रभावशाली व्यक्तित्व भी देता है । इस अवधि में जातक में उत्साह, उमंग, पुरुषार्थ, वीरता और सब कार्यों में आगे रहने की प्रवृत्ति जागरूक रहती है ।

यदि मंगल लग्नस्थ अपनी राशि को अथवा अन्यत्र स्थित राशि को पूर्ण दृष्टि से देखता हो और साथ ही मंगल पर अथवा मंगल की किसी भी राशि पर यदि गुरु आदि का शुभ प्रभाव हो तो जातक का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है, वह मंगल की दशा में धन और मान दोनों की ख्याति पाता है ।

ऐसी दशा भुक्ति में मनुष्य अजात शत्रु होता है, बल्कि उसको इस अवधि में शत्रु, चोरों, ठगों आदि से भी कुछ प्राप्ति हो जाती है । उसका शरीर स्वस्थ रहता है । इस समय व्यक्ति किसी मुश्किल कार्य को करता है और उसमें सफलता के कारण नाम पाता है । इस अवधि धन की वृद्धि ही होती है ।

मंगल और शनि यदि किसी भाव और उस के कारक को अथवा भावेश और कारक को देखेंगे तो जातक इस दशा भुक्ति में जान-बूझकर उस भाव सम्बन्धित व्यक्ति को कष्ट देने पर उतारू हो जाता है।

यदि मंगल निर्बल और पीड़ित हो तो धन की चिन्ता देता है । शरीर में पित्त के तथा बवासीर आदि के रोग उत्पन्न करता है। मंगल की दशा भुक्ति में शारीरिक तथा आर्थिक कष्ट के अतिरिक्त मान-हानि भी पाता है । उसको शत्रुओं से पीड़ा रहती है और वह स्वयं किसी दुर्व्यसन में फंस जाता है ।

बुध

1. इस लग्न में बुध अष्टमेश तथा आयेश बनता है । थोड़ा धन देता है ।

2. यदि बलवान् हो तो बड़ी बहिनें बहुत होती हैं। यदि निर्बल हो तो धन का शीघ्र नाश होता है। निर्बल बुध शीघ्र ही प्रदेश यात्रा दिलवाता है।

3. बुध यदि बहुत निर्बल हो तो कुमार अवस्था अथवा इससे पूर्वी मृत्यु कर देता है, क्योंकि बुध शीघ्र फल देता है। मंगल के साथ मिलकर यह भी चोट पहुंचाने का कार्य करता है ।

4. मेष का बुध षष्ठ स्थान में पापदृष्ट, पापयुक्त हो और किसी शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट न हो तो बहुत रोग तथा कष्ट देता है । परन्तु यही योग विपरीत राजयोग भी बनाता है जिससे मनुष्य लाखों रुपयों का स्वामी बनता है।

5. यदि, बुध, सूर्य और शुक्र सप्तम भाव में हो, तो बुध की दशा में जातक बहुत यश और राजयोग को प्राप्त होता है ।

क्योंकि सूर्य राज्यद्योतक ग्रह स्वयं दशमेश बनकर और भी राज्य का प्रतिनिधित्व करेगा । शुक्र दशम से दशम का स्वामी भी राज्य ही का द्योतक होगा, इसलिये बुध इन दो ग्रहों सूर्य और शुक्र का फल करता हुआ राज्य-प्राप्ति देगा।

इसी प्रकार सूर्य यशकारक है और दशम भाव भी, इसलिए दशमेश और दशम कारक का फल करता हुआ बुध यश तथा ख्याति दिलवायेगा ।

वृश्चिक लग्न का फलादेश

वृश्चिक लग्न में बुध महादशा का फल

यदि बुध बलवान हो तो बुध की दशा भुक्ति में बहुत अच्छी मात्रा में धन की प्राप्ति होती है । दूर-दूर के व्यापार से धन मिलता है । बड़े भाइयों से भी लाभ रहता है । यज्ञीय कार्यों में प्रवृत्ति की भी अधिक संभावना रहती है।

यदि बुध निर्बल और पीड़ित हो तो धन की, आय की कमी रहती है। बड़े बहिन-भाइयों से हानि रहती है। अचानक ही विदेश यात्रा का संयोग बन जाता है। शरीर में कष्ट रहता है ।

गुरु

1. इस लग्न में गुरु द्वितीयेश तथा पंचमेश बन जाता है । अतः यदि गुरु बलवान् हो तो मनुष्य पुत्रों से धन पाता है, उसके पुत्र धनी-मानी होते हैं ।

2. उसमें बोलने की शक्ति (Oratory) बहुत होती है । उसका बोलना मीठा तथा विद्वत्तापूर्ण होता है।

3. उसको उत्तम विद्या की प्राप्ति होती है, वह विद्या तथा बुद्धि के प्रयास से धन कमाता है।

4. गुरु जिस भाव तथा भावेश अथवा कारक पर दृष्टि डालता है उस भाव को धनी, मूल्यवान प्रशस्त बना देता है, जैसे शनि पर दृष्टि हो तो मनुष्य मूल्यवान् भूमि का स्वामी हो जाता है।

5. यदि गुरु और बुध परस्पर युति अथवा दृष्टि द्वारा संबन्धित हों, तो यह विशेष धनदायक योग बन जाता है ।

क्योंकि गुरु धनकारक भी है और धनाधिपति भी और साथ ही पंचमेश भी, इसलिये आर्थिक दृष्टि से बहुत शुभ फल देने वाला है। बुध भी शुभ फलदायक है, क्योंकि यह लाभ स्थान (जहाँ इसकी मूल त्रिकोण राशि पड़ती है) का स्वामी है। दोनों का पारस्परिक संबन्ध उनके सांझे गुण अर्थात् ‘धन’ की विशेष वृद्धि करेगा ।

6. यदि तृतीय भाव में मकर में गुरु स्थित हो, तो जातक बहुत उदार होता है । मकर राशि में तृतीय भाव में गुरु जातक को इसलिए उदार करता है कि गुरु शुभ धार्मिक ग्रह होता हुआ धनाधिपति होकर धर्म भाव को भी देखता है जिससे धन का धर्म से संबन्ध स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार गुरु का संबन्ध दोनों बाहुओं तृतीय और एकादश से होकर बाहु द्वारा शुभ व्यय होता है ।

7. यदि गुरु और बुध पंचम में और चन्द्र एकादश भाव में हो, तो व्यक्ति धनी और भाग्यशाली होता है ।

क्योंकि गुरु धनकारक और धनेश तथा पंचमेश होकर, बुध लाभेश होकर (लाभ में बुध की मूल त्रिकोण राशि है) और चन्द्र भाग्येश होकर धन का द्योतक है, अतः ये सारे ग्रह एक दूसरे की दशा भुक्ति में धन प्राप्ति का तथा भाग्यशाली होने का अच्छा योग बनाते हैं ।

वृश्चिक लग्न में गुरु महादशा का फल

बलवान गुरु अपनी दशा भुक्ति में आशातीत धन देता है। इस समय पुत्रों से भी धन मिलता है । बुद्धि धन कमाने में सफल रहती है। योजनाएं सभी सुफल देती हैं। विद्या में उन्नति होती है, विवाह का सुख होता है तथा शुभ कार्यों में व्यय होता है।

गुरु यदि निर्बल और पीड़ित हो तो धन की बहुत हानि होती है, पुत्र द्वारा धन का नाश होता है। सट्टे आदि से धन का नाश होता है, विद्या में हानि होती है । कुटुम्ब वालों से कलह रहती है, मनुष्य उस समय बहुत गलतियां करता है जिसके फलस्वरूप उसे उस समय बहुत हानि उठानी पड़ती है ।

शुक्र

1. यदि शुक्र बलवान हो तो स्त्री की आयु दीर्घ होती है। यदि शुक्र निर्बल हो तो तो जातक स्त्री पर व्यय करने वाला, राज्य से हानि उठाने वाला होता है ।

2. यदि शुक्र पंचम भाव, सप्तम भाव अथवा द्वादश भाव में पड़ जावे तो अतीव विषयी होता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में भोग तथा काम वासना के भावों का परस्पर सम्बन्ध हो जाता है और यह सम्बन्ध कामातुरता को बहुत बढ़ाता है। ऐसे व्यक्ति का व्यय अधिकतर स्त्री पर होता है।

3. यदि सप्तमस्थ शुक्र पर तृतीय भाव में स्थित राहु तथा मकर के स्वामी शनि की दृष्टि हो तो वह व्यक्ति विवाहित होकर भी दूसरी स्त्रियों से सम्बन्ध रखने वाला होता है क्योंकि राहु में अन्यत्व है और शनि अन्य स्त्री है और शुक्र स्त्री भाव का स्वामी तथा कारक होने से स्त्री का पूरा प्रतिनिधित्व करता है।

4. यदि शुक्र द्वादश अथवा सप्तम स्थान में हो उस पर राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी शनि की दृष्टि हो तो मनुष्य विवाहित होता हुआ भी दूसरी स्त्रियों से सम्बन्ध स्थापित करता है।

वृश्चिक लग्न में शुक्र महादशा का फल

यदि शुक्र निर्बल और पीड़ित हो तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में स्त्री को रोग देता है जिसके कारण बहुत व्यय करना पड़ता है। यदि शुक्र पर राहु-शनि, राहु-सूर्य अथवा सूर्य-शनि का प्रभाव हो तो इस अवधि में स्त्री से पृथक्ता तक की नौबत आ सकती है।

शनि

1. शनि चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने से अपनी नैसर्गिक अशुभता को खो देता है, परन्तु पुनः तृतीयाधिपति होने से अशुभ हो जाता है ।

2. यदि शनि बलवान् हो तो भूमि आदि का स्वामी होता है । जन कार्यों में भाग लेने वाला, मित्रों से सुखी माता का बहुत सुख पाने वाला होता है, यदि शनि निर्बल हो तो मित्रों से कष्ट पाने वाला, जनता का विरोधी, दुखी होता है।

3. यदि शनि चतुर्थ स्थान में बली हो तो व्यक्ति निम्न वर्ग का हितैषी, जनता के हित को चाहने वाला, जनप्रिय होता है। उसको भूमि जायदाद की अच्छी प्राप्ति होती है।

4. शनि यदि बलवान हो तो उसकी छोटी बहनें संख्या में प्रचुर होती हैं, क्योंकि शनि स्वतन्त्र रूप से एक स्त्री ग्रह है। यदि शनि निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो तो छोटी बहनों की कमी होती है।

वृश्चिक लग्न में शनि महादशा का फल

यदि शनि बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में भूमि आदि दिलाता है। इस अवधि सुख की वृद्धि होती है। धन विशेष नहीं बढ़ता। निम्न वर्ग के लोगों से सम्पर्क अधिक रहता है ।

यदि शनि निर्बल तथा पीड़ित हो तो अपनी दशा भुक्ति में सुख का नाश करता है, मन में चिन्ता लाता है, भाइयों से कष्ट पाता है। जमीन, जायदाद की प्राप्ति में विघ्न उपस्थित होते हैं, जनता की ओर से विरोध का सामना करना पड़ता है ।

फलित रत्नाकर

  1. ज्योतिष के विशेष सूत्र
  2. मेष लग्न का फलादेश
  3. वृष लग्न का फलादेश
  4. मिथुन लग्न का फलादेश
  5. कर्क लग्न का फलादेश
  6. सिंह लग्न का फलादेश
  7. कन्या लग्न का फलादेश
  8. तुला लग्न का फलादेश
  9. वृश्चिक लग्न का फलादेश
  10. धनु लग्न का फलदेश
  11. मकर लग्न का फलदेश
  12. कुम्भ लग्न का फलादेश
  13. मीन लग्न का फलादेश

0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *